छिलके

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दोस्तो! पौधों से बातें करने का सौभाग्य कभी-कभी ही मिलता है।
घर से साग-सब्जियों के छिलके, फल, प्याज, लहसुन आदि छिलकों को छत पर ले ही जा रहा था कि बीच में एक पौधा मजाक के लहजे में मुस्कुराते हुए बोल पड़ा, ‘क्या मालिक! आज हम बेजुबानों के खाने के लिए कुछ विशेष व्यवस्था किए हैं क्या?’
मैं बोला, ‘विशेष ही नहीं, अति विशिष्ट भोजन की व्यवस्था किया हूं, पर इस भोजन को खाने के लिए दो दिन इंतजार करना पड़ेगा।’
खुश होकर वो पौधा बोला, ‘क्या है वो अति विशिष्ट भोजन?’
मैं बोला, ‘छिलके’
वो पौधा नाक-भौं सिकुड़ते हुए बोला, ‘क्या मालिक! आप तो बहुत स्वार्थी हो। मैं तो आपको साबुत फल-फूल और सब्जियां देता हूं और आप साबुत न देकर अंदर के सारे विटामिन खाकर ऊपर के छिलके हमें देते हो।’
मैं भी उसकी बातों को सुन मंद-मंद मुस्कुराते हुए बोला, ‘कभी मेवा खाए हो? नहीं न? कच्चे-पक्के फलों को मेवा नहीं कहा जाता। अपने सौंदर्य को नष्ट कर सौंदर्यविहीन सूखे, नीरस-सा दिखने वाले ही मेवा कहलाते हैं।
उसी तरह मेवे से ज्यादा सर्वगुण सम्पन्न ये ‘छिलके’, जिसे आज देख लिया तो नाक-भौं सिकुड़ रहे हो न आज तुम, इतने हरे-भरे और तंदुरुस्त हो तो इन्हीं छिलकों की वजह से।
अंत में…
समझ न हमको छिलके
मिनरल दूंगा मिट्टी में मिल के
हरे-भरे रहोगे सदा तुम
सदा हंसोगे बन फूल के।


टेक लाल महतो (बोकारो, झारखंड)

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